
पंचायत सीजन 4 का बहुप्रतीक्षित आगमन दर्शकों के लिए उत्साह लेकर आया, लेकिन इस बार कहानी की आत्मा कुछ खोती-सी नजर आई।
इस बार कहानी फुलेरा पंचायत चुनाव के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां मंजू देवी (नीना गुप्ता) और क्रांति देवी (सुनीता राजवार) चुनाव चिन्ह – लौकी और प्रेशर कुकर – के साथ आमने-सामने हैं। लेकिन जितना मज़ा इस टकराव में आना चाहिए था, उतना असर दिखाई नहीं देता।
किरदारों की चमक हुई फीकी
सचिवजी (जीतेन्द्र कुमार), प्रह्लाद (फैसल मलिक) और विकास (चंदन रॉय) जैसे चहेते किरदार पहले जैसे असरदार नहीं लगते। न ही रिंकी और सचिवजी की केमिस्ट्री में कोई रोमांच नजर आता है। रिंकी के कुछ सीन कहानी के प्रवाह के लिए जबरन जोड़े गए लगते हैं।
ड्रामा है लेकिन दिल नहीं छूता
जहां पहले के सीजन में ‘चप्पल की अदला-बदली’ या ‘रिंकी का पीछा करने वाला’ जैसे सीन दिल को छू जाते थे, वहीं इस बार का चुनावी संघर्ष नाटकीयता में कमजोर पड़ता है। फुलेरा का वो सौम्य हास्य और गांव की मासूमियत, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था, अब धुंधलाने लगी है।
महिला किरदारों को कम स्क्रीन स्पेस
सबसे बड़ी कमी यह रही कि नीना गुप्ता और रघुबीर यादव जैसे दिग्गज कलाकार इस सीजन में साइड में नजर आते हैं। मंजू देवी, जिनके ‘प्रधान’ बनने की संभावनाएं पहले सीजन में मजबूत होती दिखीं थीं, अब पीछे छूटती लगती हैं। यहां तक कि क्रांति देवी भी अपने पहले वाले जोश में नहीं दिखतीं।
टेक्निकल ग्राफ ऊपर, लेकिन इमोशन नीचे
सीरीज की प्रोडक्शन क्वालिटी, कैमरा वर्क और सिनेमैटोग्राफी शानदार है, लेकिन कंटेंट का वो गहराई और सिंपल चार्म नहीं दिखता। एपिसोड्स लंबे हैं, किरदार ज्यादा हैं, लेकिन कहानी का असर थोड़ा हल्का पड़ा है।
फाइनल वर्डिक्ट:
पंचायत 4 में गांव की राजनीति तो है, लेकिन दिलों में बस जाने वाली सादगी नहीं। जो दर्शक पहले वाले पंचायती ठहाके और दिल को छू जाने वाले पलों की उम्मीद में थे, उन्हें इस बार थोड़ी निराशा हाथ लग सकती है।