
हर साल की तरह इस बार भी जगन्नाथ रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ पुरी में मौसी देवी गुंडिचा के घर जाएंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि देवी गुंडिचा कौन थीं? और क्यों उन्हें भगवान जगन्नाथ की ‘मौसी’ कहा जाता है?
इस पावन परंपरा की जड़ें एक अद्भुत कथा में छिपी हैं—एक ऐसी कहानी जो भक्ति, त्याग और श्रद्धा से भरी हुई है।
राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंडिचा की कथा
कहानी शुरू होती है उत्कल (वर्तमान ओडिशा) के राजा इंद्रद्युम्न और उनकी धर्मपत्नी गुंडिचा से, जिन्होंने भगवान नीलमाधव के लिए एक भव्य मंदिर बनवाया था। मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए योग्य ब्राह्मण की तलाश के दौरान देवर्षि नारद आए और सुझाव दिया कि यह कार्य स्वयं ब्रह्माजी से करवाया जाए।
राजा तैयार हो गए, लेकिन नारद ने चेताया कि ब्रह्मलोक जाकर लौटते-लौटते कई युग बीत जाएंगे। रानी गुंडिचा ने तब यह प्रण लिया कि वो समाधि में बैठकर उनके लौटने तक तप करेंगी।
ब्रह्मलोक से लौटे, बदली दुनिया
जब राजा इंद्रद्युम्न ब्रह्माजी को लेकर लौटे, तब धरती पर कई सौ साल बीत चुके थे। न तो उनका परिवार बचा और न ही वो मंदिर दिखाई दे रहा था—वह रेत में दब चुका था। अब पुरी में नया राजा गालु माधव था।
तभी एक चमत्कार हुआ—समुद्र किनारे तूफान आया और दबा हुआ श्रीमंदिर ऊपर आ गया। मंदिर को लेकर दोनों राजाओं में विवाद हुआ, लेकिन हनुमान जी संत रूप में प्रकट हुए और सच्चाई सामने लाई।
रानी गुंडिचा बनीं देवी
उधर समाधि में बैठी रानी गुंडिचा को जैसे ही राजा के लौटने की सूचना मिली, उन्होंने आंखें खोलीं। अब लोग उन्हें देवी मानने लगे क्योंकि उनकी तपस्या से पुरी सुरक्षित रहा। यज्ञ के बाद ब्रह्माजी ने मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कराई, और तभी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा प्रकट हुए।
राजा ने वरदान मांगे कि उनके साथ जुड़ी आत्माओं—विद्यापति, ललिता और विश्ववसु का नाम हमेशा इस कथा में लिया जाए। अंत में उन्होंने रानी गुंडिचा के त्याग को सम्मान देने की प्रार्थना की।
क्यों जाते हैं भगवान मौसी के घर?
भगवान जगन्नाथ ने कहा—
“आपने मेरी प्रतीक्षा मां की तरह की है, इसलिए आज से आप मेरी मौसी हैं। हर साल मैं अपनी बहन और भाई के साथ आपसे मिलने आऊंगा। जिस स्थान पर आपने तप किया था, वहीं मौसी मंदिर होगा।”
तभी से गुंडिचा मंदिर में हर साल रथयात्रा के दौरान भगवान का आगमन होता है।
निष्कर्ष:
देवी गुंडिचा की कथा न सिर्फ रथयात्रा की आध्यात्मिक गहराई को समझाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सच्चे त्याग और भक्ति को भगवान कैसे ससम्मान स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि आज भी पुरी की रथयात्रा सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि आस्था का पर्व बन चुकी है।